*बांगरू-बाण*
*मानव विकास के संवर्धक व समरसता के पुरोधा भगवान परशुराम*
श्रीपादावधूत की कलम से
*अक्षय तृतीया।*
*आज भगवान परशुराम जी का जन्मोत्सव मनाया जाता है।*
*सनातन हिंदू समाज में गुलामी के कालखंड में विधर्मियों की शासन व्यवस्था में हमारा धर्म, उपासना पद्धति, उपास्य देव भगवान व सामाजिक धार्मिक जननायको के प्रति एक दुराग्रह पूर्ण भ्रामक इतिहास प्रस्तुत कर उनके महान कार्य को बौना सिद्ध करने का प्रयत्न हुआ है।*
*यही बात भगवान परशुराम पर भी लागू होती हैं। भगवान परशुराम केवल क्षत्रियों के संहारक के रूप में ही हमारे समक्ष प्रस्तुत किए गए हैं। सोचने वाली बात है कि क्या कोई व्यक्ति हिंसा के बूते जननायक बन सकता है ?*
*समाज सुधार और समाज कल्याण में परशुराम जी की महती भूमिका है।*
*भगवान परशुराम प्रतीक है एक स्वाभिमानी पितृ भक्त होने का, अपने वचनों पर अडिग रहने का व अन्याय के विरुद्ध युद्ध करके न्याय की पुनर्स्थापना करने का सामाजिक समरसता के प्रथम संवाहक होने का।*
*भगवान शिव साक्षात जिसके गुरु रहे हो ऐसे भगवान परशुराम समाज सुधार से जुड़े क्रांतिकारी अवतारी थे। विष्णु के दशावतारों में से छठवें अवतार वाले भगवान परशुराम के साथ भी कमोबेश यही हुआ। उनके आक्रोश और पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियविहीन करने की घटना को खूब प्रचारित करके वैमस्यता फैलाने का उपक्रम किया जाता है। पिता की आज्ञा पर मां रेणुका का सिर धड़ से अलग करने की घटना को भी एक आज्ञाकारी पुत्र के रुप में एक प्रेरक आख्यान बनाकर सुनाया जाता है। किंतु यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या व्यक्ति केवल चरम हिंसा के बूते जन-नायक के रुप में स्थापित होकर लोकप्रिय हो सकता हैं ?*
*क्या हैहय वंश के प्रतापी महिष्मति नरेश कार्तवीर्य अर्जुन के वंश का समूल नाश करने के बावजूद पृथ्वी क्षत्रियों से विहीन हो पाई ?*
*रामायण और महाभारत काल से संपूर्ण पृथ्वी पर क्षत्रिय राजाओं के राज्य हैं। वे ही उनके अधिपति हैं। इक्ष्वाकु वंश के मर्यादा पुरुषोत्तम राम को आशीर्वाद देने वाले, कौरव नरेश धृतराष्ट को पाण्डवों से संधि करने की सलाह देने वाले और सूत-पुत्र कर्ण को ब्रह्मशास्त्र की दीक्षा देने वाले परशुराम ही थे। ये सब क्षत्रिय थे। अर्थात परशुराम क्षत्रियों के शत्रु नहीं शुभचिंतक थे।* *भगवान परशुराम केवल आतातायी क्षत्रियों के प्रबल विरोधी थे।*
*समाज सुधार और जनता को रोजगार से जोड़ने में भी परशुराम की अंहम् भूमिका अतंनिर्हित है। केरल, कच्छ और कोंकण क्षेत्रों में जहां परशुराम ने समुद्र में डूबी खेती योग्य भूमि निकालने की तकनीक सुझाई, वहीं परशु का उपयोग जंगलों का सफाया कर भूमि को कृषि योग्य बनाने के काम में भी किया। यहीं परशुराम ने शूद्र माने जाने वाले दरिद्र नारायणों को शिक्षित व दीक्षित कर उन्हें ब्राह्मण बनाया। यज्ञोपवीत संस्कार से जोड़ा और उस समय जो दुराचारी व आचरणहीन ब्राह्मण थे, उन्हें शूद्र घोषित कर उनका सामाजिक बहिष्कार किया। परशुराम के अंत्योदय के प्रकल्प अनूठे व अनुकरणीय हैं। जिन्हें रेखांकित किए जाने की आवश्यकता है।*
*भगवान परशुराम का समय बहुत प्राचीन है। आज उनके कालखंड को निर्धारित करना इसका आकलन करना कठिन है। जमदग्नि परशुराम का जन्म हरिशचन्द्रकालीन विश्वामित्र से एक-दो पीढ़ी बाद का माना जाता है। यह समय प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में 'अष्टादश परिवर्तन युग' के नाम से जाना गया है। अर्थात यह समय ऐसे संक्रमण काल के रुप में दर्ज है, जिसे बदलाव का युग माना गया। इसी समय क्षत्रियों की शाखाएं दो कुलों में विभाजित हुईं। एक सूर्यवंश और दूसरा चंद्रवंश। चंद्रवंशी पूरे भारतवर्ष में छाए हुए थे और उनके प्रताप की तूती बोलती थी। हैहय अर्जुन वंश चंद्रवंशी था। इन्हें यादवों के नाम से भी जाना जाता था।* *महिष्मती नरेश कार्तवीर्य अर्जुन इसी यादवी कुल के वंशज थे। भृगु ऋषि इस चंद्रवंश के राजगुरु थे। जमदग्नि राजगुरु परंपरा का निर्वाह कार्तवीर्य अर्जुन के दरबार में कर रहे थे। किंतु अनीतियों का विरोध करने के कारण कार्तवीर्य अर्जुन और जमदग्नि में मतभेद उत्पन्न हो गए। परिणामस्वरुप जमदग्नि महिष्मति राज्य छोड़ कर चले गए।*
*इस गतिविधि से रुष्ठ होकर सहस्त्रबाहू कार्तवीर्य अर्जुन आखेट का बहाना करके अनायास जमदग्नि के आश्रम में सेना सहित पहुंच गया। ऋषि जमदग्नि और उनकी पत्नी रेणुका ने अतिथि सत्कार किया। लेकिन स्वेच्छाचारी अर्जुन युद्ध के उन्माद में था। इसलिए उसने प्रतिहिंसा स्वरुप जमदग्नि की हत्या कर दी। आश्रम उजाड़ा और ऋषि की प्रिय कामधेनु गाय को बछड़े सहित बलात् छीनकर ले गया। अनेक ब्राहम्णों ने कान्यकुब्ज के राजा गाधि राज्य में शरण ली। परशुराम जब यात्रा से लौटे तो रेणुका ने आपबीती सुनाई। इस घटना से कुपित व क्रोधित होकर परशुराम ने हैहय वंश के विनाश का संकल्प लिया। इस हेतु एक पूरी सामरिक रणनीति को अंजाम दिया। दो वर्ष तक लगातार परशुराम ने ऐसे सूर्यवंशी और यादववंशी राज्यों की यात्राएं की जो हैहय चद्रवंशीयों के विरोधी थे। वाकचातुर्थ और नेतृत्व दक्षता के बूते परशुराम को ज्यादातर चंद्रवंशीयों ने समर्थन दिया। अपनी सेनाएं और हथियार परशुराम की अगुवाई में छोड़ दिए। तब कहीं जाकर महायुद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हुई।*
*इसमें भगवान परशुराम को अवन्तिका के यादव, विदर्भ के शर्यात यादव, पंचनद के द्रुह यादव, कान्यकुब्ज कन्नौज के गाधिचंद्रवंशी, आर्यवर्त सम्राट सुदास सूर्यवंशी, गांगेय प्रदेश के काशीराज, गांधार नरेश मान्धता, अविस्थान (अफगानिस्तान), मुजावत (हिन्दुकुश), मेरु (पामिर), श्री (सीरिया) परशुपुर (पारस, वर्तमान फारस) सुसर्तु (पंजक्षीर वर्तमान पाकिस्तान के बलूचिस्तान का हिस्सा) उत्तर कुरु (चीनी सुतुर्किस्तान) वल्क, आर्याण (ईरान) देवलोक (सप्तसिंधु) और अंग-बंग बिहार के संथाल परगना से बंगाल तथा असम तकद्ध के राजाओं ने परशुराम का नेतृत्व स्वीकारते हुए इस महायुद्ध में भागीदारी की। जबकि शेष रह गई क्षत्रिय जातियां चेदि (चंदेरी) नरेश, कौशिक यादव, रेवत तुर्वसु, अनूप, रोचमान कार्तवीर्य अर्जुन की ओर से लड़ीं। इस भीषण युद्ध में अंततः कार्तवीर्य अर्जुन और उसके कुल के लोग तो मारे ही गए। युद्ध में अर्जुन का साथ देने वाली जातियों के वंशजों का भी लगभग समूल नाश हुआ। भरतखण्ड में यह इतना बड़ा महायुद्ध था कि परशुराम ने अंहकारी व उन्मत्त क्षत्रिय राजाओं को, युद्ध में मार गिराते हुए अंत में लोहित क्षेत्र, अरुणाचल में पहुंचकर ब्रहम्पुत्र नदी में अपना फरसा धोया था। बाद में यहां पांच कुण्ड बनवाए गए जिन्हें समंतपंचका रुधिर कुण्ड कहा गया है। ये कुण्ड आज भी अस्तित्व में हैं। इन्हीं कुण्डों में भृगृकुलभूषण परशुराम ने युद्ध में हताहत हुए भृगु व सूर्यवंशीयों का तर्पण किया। इस विश्वयुद्ध का समय 7200 विक्रमसंवत पूर्व माना जाता है। जिसे उन्नीसवां युग कहा गया है।*
*इस युद्ध के बाद भगवान परशुराम ने समाज सुधार व कृषि के प्रकल्प हाथ में लिए। केरल,कोंकण मलाबार और कच्छ क्षेत्र में समुद्र में डूबी ऐसी भूमि को बाहर निकाला जो खेती योग्य थी। इस समय कश्यप ऋषि और इन्द्र समुद्री पानी को बाहर निकालने की तकनीक में निपुण थे। अगस्त्य को समुद्र का पानी पी जाने वाले ऋषि और इन्द्र का जल-देवता इसीलिए माना जाता है। परशुराम ने इसी क्षेत्र में परशु का उपयोग रचनात्मक काम के लिए किया। शूद्र माने जाने वाले लोगों को उन्होंने वन काटने में लगाया और उपजाऊ भूमि तैयार करके धान की पैदावार शुरु कराईं। इन्हें जनेऊ धारण कराए। और अक्षय तृतीया के दिन एक साथ हजारों युवक-युवतियों को परिणय सूत्र में बांधा। परशुराम द्वारा अक्षयतृतीया के दिन सामूहिक विवाह किए जाने के कारण ही इस दिन को परिणय बंधन का बिना किसी मुहूर्त्त के शुभ मुहूर्त्त माना जाता है।*
*दक्षिण का यही वह क्षेत्र हैं जहां परशुराम के सबसे ज्यादा मंदिर मिलते हैं और उनके अनुयायी उन्हें भगवान के रुप में पूजते हैं। दक्षिण में भगवान परशुराम के बने प्रथम मंदिर को "तिरुक्ककर-अप्पण" कहा जाता है। इसी दिन ओणम भी मनाया जाता है।*
*भगवान परशुराम चिरंजीव माने जाते हैं वे अष्ट चिरंजीवी में से एक चिरंजीवी है अर्थात जिनकी कभी मृत्यु नहीं होती। इसलिए सभी युगों में भगवान परशुराम का उल्लेख मिलता है। गणेश के एकदंत होने की घटना में परशुराम जी का ही योगदान है कहते हैं इनके परशु से ही गणेश जी का एक दांत टूट गया था। भगवान राम को शिव धनुष परशुराम जी ने ही दिया था। भगवान कृष्ण को सुदर्शन दीक्षा परशुराम जी से ही प्राप्त हुई थी।*
*इसलिए भगवान परशुराम को केवल क्षत्रिय निहंता ब्राह्मणों का आराध्य पुरुष ऐसे विशेषण लगा करके उनके इतने महान कार्य को बौना करने का ही प्रयास है।*
अवधूत चिंतन श्री गुरुदेव दत्त