Friday, May 10, 2024

*बांगरू-बाण* *मानव विकास के संवर्धक व समरसता के पुरोधा भगवान परशुराम*

*बांगरू-बाण* 

*मानव विकास के संवर्धक व समरसता के पुरोधा भगवान परशुराम* 

श्रीपादावधूत की कलम से 

*अक्षय तृतीया।* 

*आज भगवान परशुराम जी का जन्मोत्सव मनाया जाता है।* 

*सनातन हिंदू समाज में गुलामी के कालखंड में विधर्मियों की शासन व्यवस्था में हमारा धर्म, उपासना पद्धति, उपास्य देव भगवान व सामाजिक धार्मिक जननायको के प्रति एक दुराग्रह पूर्ण भ्रामक इतिहास प्रस्तुत कर उनके महान कार्य को बौना सिद्ध करने का प्रयत्न हुआ है।* 
*यही बात भगवान परशुराम पर भी लागू होती हैं। भगवान परशुराम केवल क्षत्रियों के संहारक के रूप में ही हमारे समक्ष प्रस्तुत किए गए हैं। सोचने वाली बात है कि क्या कोई व्यक्ति हिंसा के बूते जननायक बन सकता है ?*

*समाज सुधार और समाज कल्याण में परशुराम जी की महती भूमिका है।* 
*भगवान परशुराम प्रतीक है एक स्वाभिमानी पितृ भक्त होने का, अपने वचनों पर अडिग रहने का व अन्याय के विरुद्ध युद्ध करके न्याय की पुनर्स्थापना करने का सामाजिक समरसता के प्रथम संवाहक होने का।*

*भगवान शिव साक्षात जिसके गुरु रहे हो ऐसे भगवान परशुराम समाज सुधार से जुड़े क्रांतिकारी अवतारी थे। विष्णु के दशावतारों में से छठवें अवतार  वाले भगवान परशुराम के साथ भी कमोबेश यही हुआ। उनके आक्रोश और पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियविहीन करने की घटना को खूब प्रचारित करके वैमस्यता फैलाने का उपक्रम किया जाता है। पिता की आज्ञा पर मां रेणुका का सिर धड़ से अलग करने की घटना को भी एक आज्ञाकारी पुत्र के रुप में एक प्रेरक आख्यान बनाकर सुनाया जाता है। किंतु यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या व्यक्ति केवल चरम हिंसा के बूते जन-नायक के रुप में स्थापित होकर लोकप्रिय हो सकता हैं ?* 

*क्या हैहय वंश के प्रतापी महिष्मति नरेश कार्तवीर्य अर्जुन के वंश का समूल नाश करने के बावजूद पृथ्वी क्षत्रियों से विहीन हो पाई ?* 

*रामायण और महाभारत काल से संपूर्ण पृथ्वी पर क्षत्रिय राजाओं के राज्य हैं। वे ही उनके अधिपति हैं। इक्ष्वाकु वंश के मर्यादा पुरुषोत्तम राम को आशीर्वाद देने वाले, कौरव नरेश धृतराष्ट को पाण्डवों से संधि करने की सलाह देने वाले और सूत-पुत्र कर्ण को ब्रह्मशास्त्र की दीक्षा देने वाले परशुराम ही थे। ये सब क्षत्रिय थे। अर्थात परशुराम क्षत्रियों के शत्रु नहीं शुभचिंतक थे।* *भगवान परशुराम केवल आतातायी क्षत्रियों के प्रबल विरोधी थे।* 

        *समाज सुधार और जनता को रोजगार से जोड़ने में भी परशुराम की अंहम् भूमिका अतंनिर्हित है। केरल, कच्छ और कोंकण क्षेत्रों में जहां परशुराम ने समुद्र में डूबी खेती योग्य भूमि निकालने की तकनीक सुझाई, वहीं परशु का उपयोग जंगलों का सफाया कर भूमि को कृषि योग्य बनाने के काम में भी किया। यहीं परशुराम ने शूद्र माने जाने वाले दरिद्र नारायणों को शिक्षित व दीक्षित कर उन्हें ब्राह्मण बनाया। यज्ञोपवीत संस्कार से जोड़ा और उस समय जो दुराचारी व आचरणहीन ब्राह्मण थे, उन्हें शूद्र घोषित कर उनका सामाजिक बहिष्कार किया। परशुराम के अंत्योदय के प्रकल्प अनूठे व अनुकरणीय हैं। जिन्हें रेखांकित किए जाने की आवश्यकता है।*

        *भगवान परशुराम का समय बहुत प्राचीन है। आज उनके कालखंड को निर्धारित करना इसका आकलन करना कठिन है।  जमदग्नि परशुराम का जन्म हरिशचन्द्रकालीन विश्वामित्र से एक-दो पीढ़ी बाद का माना जाता है। यह समय प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में 'अष्टादश परिवर्तन युग' के नाम से जाना गया है। अर्थात यह समय ऐसे संक्रमण काल के रुप में दर्ज है, जिसे बदलाव का युग माना गया। इसी समय क्षत्रियों की शाखाएं दो कुलों में विभाजित हुईं। एक सूर्यवंश और दूसरा चंद्रवंश।  चंद्रवंशी पूरे भारतवर्ष में छाए हुए थे और उनके प्रताप की तूती बोलती थी। हैहय अर्जुन वंश चंद्रवंशी था। इन्हें यादवों के नाम से भी जाना जाता था।* *महिष्मती नरेश कार्तवीर्य अर्जुन इसी यादवी कुल के वंशज थे। भृगु ऋषि इस चंद्रवंश के राजगुरु थे। जमदग्नि राजगुरु परंपरा का निर्वाह कार्तवीर्य अर्जुन के दरबार में कर रहे थे। किंतु अनीतियों का विरोध करने के कारण कार्तवीर्य अर्जुन और जमदग्नि में मतभेद उत्पन्न हो गए। परिणामस्वरुप जमदग्नि महिष्मति राज्य छोड़ कर चले गए।*

*इस गतिविधि से रुष्ठ होकर सहस्त्रबाहू कार्तवीर्य अर्जुन आखेट का बहाना करके अनायास जमदग्नि के आश्रम में सेना सहित पहुंच गया। ऋषि जमदग्नि और उनकी पत्नी रेणुका ने अतिथि सत्कार किया। लेकिन स्वेच्छाचारी अर्जुन युद्ध के उन्माद में था। इसलिए उसने प्रतिहिंसा स्वरुप जमदग्नि की हत्या कर दी। आश्रम उजाड़ा और ऋषि की प्रिय कामधेनु गाय को बछड़े सहित बलात् छीनकर ले गया। अनेक ब्राहम्णों ने कान्यकुब्ज के राजा गाधि राज्य में शरण ली। परशुराम जब यात्रा से लौटे तो रेणुका ने आपबीती सुनाई। इस घटना से कुपित व क्रोधित होकर परशुराम ने हैहय वंश के विनाश का संकल्प लिया। इस हेतु एक पूरी सामरिक रणनीति को अंजाम दिया। दो वर्ष तक लगातार परशुराम ने ऐसे सूर्यवंशी और यादववंशी राज्यों की यात्राएं की जो हैहय चद्रवंशीयों के विरोधी थे। वाकचातुर्थ और नेतृत्व दक्षता के बूते परशुराम को ज्यादातर चंद्रवंशीयों ने समर्थन दिया। अपनी सेनाएं और हथियार परशुराम की अगुवाई में छोड़ दिए। तब कहीं जाकर महायुद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हुई।*

 
        *इसमें भगवान परशुराम को अवन्तिका के यादव, विदर्भ के शर्यात यादव, पंचनद के द्रुह यादव, कान्यकुब्ज कन्नौज के गाधिचंद्रवंशी, आर्यवर्त सम्राट सुदास सूर्यवंशी, गांगेय प्रदेश के काशीराज, गांधार नरेश मान्धता, अविस्थान (अफगानिस्तान), मुजावत (हिन्दुकुश), मेरु (पामिर), श्री (सीरिया) परशुपुर (पारस, वर्तमान फारस) सुसर्तु (पंजक्षीर वर्तमान पाकिस्तान के बलूचिस्तान का हिस्सा) उत्तर कुरु (चीनी सुतुर्किस्तान) वल्क, आर्याण (ईरान) देवलोक (सप्तसिंधु) और अंग-बंग बिहार के संथाल परगना से बंगाल तथा असम तकद्ध के राजाओं ने परशुराम का नेतृत्व स्वीकारते हुए इस महायुद्ध में भागीदारी की। जबकि शेष रह गई क्षत्रिय जातियां चेदि (चंदेरी) नरेश, कौशिक यादव, रेवत तुर्वसु, अनूप, रोचमान कार्तवीर्य अर्जुन की ओर से लड़ीं। इस भीषण युद्ध में अंततः कार्तवीर्य अर्जुन और उसके कुल के लोग तो मारे ही गए। युद्ध में अर्जुन का साथ देने वाली जातियों के वंशजों का भी लगभग समूल नाश हुआ। भरतखण्ड में यह इतना बड़ा महायुद्ध था कि परशुराम ने अंहकारी व उन्मत्त क्षत्रिय राजाओं को, युद्ध में मार गिराते हुए अंत में लोहित क्षेत्र, अरुणाचल में पहुंचकर ब्रहम्पुत्र नदी में अपना फरसा धोया था। बाद में यहां पांच कुण्ड बनवाए गए जिन्हें समंतपंचका रुधिर कुण्ड कहा गया है। ये कुण्ड आज भी अस्तित्व में हैं। इन्हीं कुण्डों में भृगृकुलभूषण परशुराम ने युद्ध में हताहत हुए भृगु व सूर्यवंशीयों का तर्पण किया। इस विश्वयुद्ध का समय 7200 विक्रमसंवत पूर्व माना जाता है। जिसे उन्नीसवां युग कहा गया है।* 

        *इस युद्ध के बाद भगवान परशुराम ने समाज सुधार व कृषि के प्रकल्प हाथ में लिए। केरल,कोंकण मलाबार और कच्छ क्षेत्र में समुद्र में डूबी ऐसी भूमि को बाहर निकाला जो खेती योग्य थी। इस समय कश्यप ऋषि और इन्द्र समुद्री पानी को बाहर निकालने की तकनीक में निपुण थे। अगस्त्य को समुद्र का पानी पी जाने वाले ऋषि और इन्द्र का जल-देवता इसीलिए माना जाता है। परशुराम ने इसी क्षेत्र में परशु का उपयोग रचनात्मक काम के लिए किया। शूद्र माने जाने वाले लोगों को उन्होंने वन काटने में लगाया और उपजाऊ भूमि तैयार करके धान की पैदावार शुरु कराईं। इन्हें जनेऊ धारण कराए। और अक्षय तृतीया के दिन एक साथ हजारों युवक-युवतियों को परिणय सूत्र में बांधा। परशुराम द्वारा अक्षयतृतीया के दिन सामूहिक विवाह किए जाने के कारण ही इस दिन को परिणय बंधन का बिना किसी मुहूर्त्त के शुभ मुहूर्त्त माना जाता है।* 
*दक्षिण का यही वह क्षेत्र हैं जहां परशुराम के सबसे ज्यादा मंदिर मिलते हैं और उनके अनुयायी उन्हें भगवान के रुप में पूजते हैं। दक्षिण में भगवान परशुराम के बने प्रथम मंदिर को "तिरुक्ककर-अप्पण" कहा जाता है। इसी दिन ओणम भी मनाया जाता है।* 
*भगवान परशुराम चिरंजीव माने जाते हैं वे अष्ट चिरंजीवी में से एक चिरंजीवी है अर्थात जिनकी कभी मृत्यु नहीं होती। इसलिए सभी युगों में भगवान परशुराम का उल्लेख मिलता है। गणेश के एकदंत होने की घटना में परशुराम जी का ही योगदान है कहते हैं इनके परशु से ही गणेश जी का एक दांत टूट गया था। भगवान राम को शिव धनुष परशुराम जी ने ही दिया था। भगवान कृष्ण को सुदर्शन दीक्षा परशुराम जी से ही प्राप्त हुई थी।* 
*इसलिए भगवान परशुराम को केवल क्षत्रिय निहंता ब्राह्मणों का आराध्य पुरुष ऐसे विशेषण लगा करके उनके इतने महान कार्य को बौना करने का ही प्रयास है।* 

अवधूत चिंतन श्री गुरुदेव दत्त

Monday, May 6, 2024

भूली बिसरी यादें* श्रीपादावधूत अवधूत की कलम से

*बांगरू-बाण*
*भूली बिसरी यादें*
श्रीपादावधूत अवधूत की कलम से 

     *संघ के चौथे सरसंघचालक परम पूज्य श्री रज्जु भैया ने कहा था कि, १० नये व्यक्ति भले न जुड़े पर एक भी पुराना कार्यकर्ता टूटना नही चाहिए इसका सदैव ध्यान रखें।* 
   *इसलिए पद प्रतिष्ठा और पैसे के इस दौर में पैदल चलकर संगठन खड़ा करने वाले लोगों को कभी ना भूले कोई भी संगठन मशीनी नहीं होता वह मानवीय होता है।*
    
*समय-समय पर सबकी भूमिकाए बदल सकती है। पर आज आप जहां हो उस संगठन को वहां तक लाने के लिए पुराने कार्यकर्ताओं ने बहुत कुछ दांव पर लगाया है।* *इसलिए वर्तमान चकाचौंध में और हर बात में विकल्प की तलाश में अपने पुराने कार्यकर्ताओं को भूलना उनके समर्पण को नजरअंदाज करना मूर्खता ही नहीं पाप भी होता है।*
       *आज तो बहुत अनुकूलता हैं, साधन हैं, गाड़ियां हैं पर जिन लोगों ने पैदल चलकर चने, सेव व परमल खाकर साइकिल, पैदल चलकर संगठन खड़ा करने का काम किया हैं उन लोगों को नजरअंदाज करना या भूलना उसके समर्पण के साथ न्याय नहीं है।*
       
*संगठन मशीनों वाहनों और दिमाग से नहीं होता, संगठन शुद्ध सात्विक प्रेम से होता है शुद्ध सात्विक प्रेम ही कार्यकर्ताओं को दांव पर लगाने की हिम्मत देता है।* 
    
*इसलिए चिर पुरातन नित्य नूतन की हमारी अवधारणा के साथ हमें कार्यकर्ताओं में भी यही भाव जागृत रखना चाहिए।*

*परम पूज्य श्री रज्जु भैया के जन्म जयन्ती वर्ष पर यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।* 
*नोट:-* *इस तरह की बातें केवल श्रद्धांजलि वाले दिन ही याद आती है। दूसरों को उपदेश देने हेतु बौद्धिकों में प्रयोग में लाई जाती है।* 
अवधूत चिंतन श्री गुरुदेव दत्त


Friday, February 23, 2024

*74½ की कसम*

*बांगरू-बाण*

श्रीपादावधूत की कलम से 

*74½ की कसम*

*जो लोग राजस्थान से हैं वे लोग इस 74½ की कसम को बहुत अच्छे से जानते हैं। लगभग 30/40 वर्ष पहले तक  राजस्थान में गोपनीय पत्र व्यवहारों के लिए पत्र के ऊपर या पत्र के अंदर 74½ की कसम लिखने की परंपरा थी।* 
 *यह 74½ एक कसम है गोपनीयता की विश्वसनीयता की भरोसे की जो सरकारी  सील से भी ज्यादा महत्व पूर्ण थी। जो यह कहती ही कसम तुम्हे उन साढ़े चौहत्तर  मन जनेऊ की जिन्होंने अपने स्वाभिमान अपने देश/धर्म/कुल की परंपरा को बचाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दीथी। इसलिए जो तुमने इस पत्र की गोपनीयता को तोड़ा तो।*

*इतिहास में वह दिन था 23 फरवरी 1568 का।* 
*जी हाँ 23 फरवरी ठीक आज से 456 वर्ष पूर्व, यह घटना घटित हुई थी।* *अंग्रेजों के पोषित इतिहासकार एवं कम्युनिस्ट विचारों से ओतप्रोत इस्लामिक विचारधारा को श्रेष्ठ मानने वाले लिब्रांडू शर्मनिरपेक्ष  इतिहासकारों ने इस घटना का उल्लेख ही नहीं किया है न हमे किसी पाठ्यक्रम में यह पढ़ाया गया।* 
*भारत के इतिहास में कुल 12 जौहर और साकाओं का विवरण मिलता है। उसमें 3 चित्तौड़ में हुए थे।* 
*1. रानी पद्मनी का* 
*2. राजा उदय सिंह की माता रानी कर्णावती का जब उसने उदय सिंह को पन्ना धाय को सौंप कर किया था।* 
*3.यह सबसे खूंखार और विभत्स था। इस दिन 23 फरवरी 1568 को तथाकथित "अकबर महान" के सौजन्य से* । 
*हमारे देश का इतिहास इस देश के रंगीले चाचा जिन्हें लोग जवाहरलाल नेहरू के नाम से जानते हैं के द्वारा लिखित एक पुस्तक जिसे नाम दिया गया "भारत एक खोज" मैं लिखा इतिहास सच्चा एवं सही माना जाता है। और आगे जाकर उन्हीं की वर्णसंकर संताने जो अपने आप को कम्युनिस्ट,  मिशनरी एवं इस्लाम प्रणीत शर्मनिरपेक्ष इतिहासकार कहती हैं। जिनमें हबीब तनवीर, रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों ने भी वही इतिहास हमारे सामने रखा जिसमें भारतीयों की  हिंदुओं की गुलामी की, पराजय की, और अपमान की कहानियां ही समाज के सामने लाई। इन्होंने मुगल कितने श्रेष्ठ थे आज भारत के विकास में सबसे बड़ा योगदान मुगलों का ही है। इसलिए भारत के इतिहास में मुगलों को कई तमगों से नवाजा गया।* *लेकिन दुर्भाग्य से हिंदुओं के शौर्य का, पराक्रम का, स्वाभिमान का जो इतिहास था वह किसी ने भी समाज के सामने लाने का प्रयत्न जानबूझकर नहीं किया। आज देश स्वतंत्रता के अमृत काल में पहुंच गया है इसीलिए यह इतिहास अब लोगों के सामने धीरे-धीरे आने लगा है उसी कड़ी में यह एक प्रयास है।*
 *इस्लामिक मुस्लिम इतिहासकार अबुल फजल चितौड़ विजय के बारे में जो लिखते हैं वह आंखें खोलने वाला है।* 
*"अकबर के आदेशानुसार प्रथम 8000  राजपूत योद्धाओं को बंदी बना लिया गया और बाद में उनका वध कर दिया गया। उनके साथ-साथ विजय के बाद प्रात:काल से दोपहर तक अन्य 40000 हजार किसानों का भी वध कर दिया गया। जिनमें 3000 बच्चे और बूढ़े थे।"*
(अकबरनामा, अबुल फजल, अनुवाद एच. बैबरिज)
*जिस समय युद्ध का बिगुल बजा तब 25 अक्टूबर 1567 में उदय सिंह उदयपुर की सुरक्षा के लिए पीछे हट गए और किले के अंदर रहने वाले 60,000 नागरिकों के साथ चित्तौड़ की रक्षा के लिए 8,000 योद्धाओं को छोड़ दिया। इनमे राजपूतों के दो प्रमुख योद्धा जयमल राठौर और पत्ता/फत्ता चुंडावत थे।* 
*जयमल और पत्ता/फत्ता का पूरा नाम जयमल मेड़तिया राठौड़ और फतेहसिंह सिसौदिया था। जयमल मेड़तिया राठौड़ , मीरा बाई के सौतेले भाई भी थे। जर्मन इतिहासकार द्वारा अकबर पर लिखी पुस्तक में जयमल को “Lion of Chittod” कहा गया है।* 
*किले के अंदर अन्य लोग सैदास रावत, बल्लू सोलंकी, ठाकुर सांडा और ईसरदास चौहान थे। राजपूतों ने इतने दिनों मुग़लों को रोक रखा पर जब राशन की समाप्ति हो गयी तब इन्होंने चितौड़ के किले का द्वार खोल दिया।* *चित्तौड़ की पराजय होगी यह सोच  महारानी जयमाल  समेत 12000 क्षत्राणियों ने मुगलों के हरम में जाने की अपेक्षा जौहर की अग्नि में स्वयं को जलाकर भस्म कर लिया। जरा कल्पना कीजिए विशाल गड्ढों में धधकती आग और दिल दहला देने वाली चीखों-पुकार के बीच उसमें कूदती 12000 वीर क्षत्राणियां ।*
 *8000 युवक राजपूतों ने माथे पर इस जोहर की राख लगा शाका किया।* *शाका कहते हैं कि वे युद्ध मे मरने के लिए निकल पड़े, एक एक योद्धा ने सैकड़ों का वध किया पर मुग़ल की सवा लाख की सेना के सामने कैसे टिकते।*
*उस एक दिन में मुग़लों ने 8000 राजपूतों के वीरगति प्राप्त होने  के बाद 60000 किसानों, वृद्ध और बच्चों का कत्लेआम किया ।   बच्चों को भाले की नोंक पर उछाल उछाल कर मारा गया वृद्धों को तड़फा-तड़फा कर।* 
*ब्रिटिश इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड लिखते हैं -* 
*"अकबर ने अपनी सफलता को मारे गए हिंदुओं के शरीर से ली गई जनेउ की मात्रा से मापा जो कि साढ़े चौहत्तर मन हुई। एक मन 40 किलोग्राम का होता है। तो उस काले दिन में मारे गए हिंदुओं पर जनेऊ के धागों का वजन 2,980 किलोग्राम था।* 
*अंदाजन एक जनेऊ एक छंटाक की होती  है तो इस आधार पर जोड़ा जाए तो कुल 47680 हिंदू वीर बलिदान  हुए। ऐसा कत्लेआम भारत के इतिहास में कभी न हुआ। यह सुन कर पढ़ कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं।* 
*इतना भयंकर विभत्स अत्याचार इतनी भयंकर नृशंस हत्याएं करने वाला जलालुद्दीन अकबर जिसे चचा नेहरू  "अकबर द ग्रेट" कहते हैं कितनी विडंबना है यह।*
 *हमारे कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने भी अकबर को एक परोपकारी उदार, दयालु और धर्मनिरपेक्ष शासक बताया है।*
*अकबर के जीवन पर शोध करने वाले इतिहासकार विंसेट स्मिथ ने साफ़ लिखा है कि अकबर एक दुष्कर्मी, घृणित एवं नृशंस-हत्याकांड करने वाला क्रूर शासक था।*
*चित्तौड़ की विजय के बाद अकबर ने कुछ फतहनामें प्रसारित करवाये थे।* 
*जिससे हिन्दुओं के प्रति उसकी गहन आन्तरिक घृणा प्रकाशित होती हैं।*
*एक उदाहरण देखिए यह लिखने वाला भी अकबर के काल का एक मुसलमान इतिहासकार था और यह लिखित दस्तावेज आज भी नईदिल्ली के म्यूजियम में सुरक्षित है।*
*"अल्लाह की ख्याति बढ़े, इसके लिए हमारे कर्तव्य परायण मुजाहिदीनों ने अपवित्र काफिरों को अपनी बिजली की तरह चमकीली कड़कड़ाती तलवारों द्वारा वध कर दिया। हमने अपना बहुमूल्य समय और अपनी शक्ति घिज़ा (जिहाद एक अरबी शब्द अर्थात् धर्म युद्ध अर्थ गैर मुस्लिमों का छल कपट से कटाई और गैर मुस्लिम स्त्रियों को वेश्या बनाना) में ही लगा दिया है और अल्लाह के सहयोग से काफिरों के अधीन बस्तियों, किलों, शहरों को विजय कर अपने अधीन कर लिया है। कृपालु अल्लाह उन्हें त्याग दे और उन सभी का विनाश कर दे। हमने पूजा स्थलों उसकी मूर्तियों को और काफिरों के अन्य स्थानों का विध्वंस कर दिया है।"*
(फतहनामा-ए-चित्तौड़ मार्च 1586,नई दिल्ली) 

*स्वतंत्रता के अमृत काल में हमारा यह नैतिक कर्तव्य है कि जो हमारा गौरव का इतिहास है स्वाभिमान का इतिहास है, पुरुषार्थ का और पराक्रम का इतिहास है वह समाज के सामने लाएं और उस इतिहास से वर्तमान समय में सीख ले।* 

अवधूत चिंतन श्री गुरुदेव दत्त

Sunday, February 4, 2024

चीन की सभ्यता 5000 साल पुरानी मानी जाती है, लगभग महाभारत काल का समय, तो चीन का उल्लेख महाभारत में क्यों नहीं है?

चीन की सभ्यता 5000 साल पुरानी मानी जाती है, लगभग महाभारत काल का समय, तो चीन का उल्लेख महाभारत में क्यों नहीं है?
युद्ध तिथि : महाभारत का युद्ध और महाभारत ग्रंथ की रचना का काल अलग अलग रहा है। इससे भ्रम की स्थिति उत्पन्न होने की जरूरत नहीं। यह सभी और से स्थापित सत्य है कि भगवान श्रीकृष्ण का जन्म रोहिणी नक्षत्र तथा अष्टमी तिथि के संयोग से जयंती नामक योग में लगभग 3112 ईसा पूर्व को हुआ हुआ। भारतीय खगोल वैज्ञानिक आर्यभट्ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ईसा पूर्व में हुआ और कलियुग का आरम्भ कृष्ण के निधन के 35 वर्ष पश्चात हुआ। महाभारत काल वह काल है जब सिंधुघाटी की सभ्यता अपने चरम पर थी।

विद्वानों का मानना है कि महाभारत में वर्णित सूर्य और चंद्रग्रहण के अध्ययन से पता चलता है कि युद्ध 31वीं सदी ईसा पूर्व हुआ था लेकिन ग्रंथ का रचना काल भिन्न भिन्न काल में गढ़ा गया। प्रारंभ में इसमें 60 हजार श्लोक थे जो बाद में अन्य स्रोतों के आधार पर बढ़ गए।
अब जानिए महाभारत काल में भारतीयों का विदेशियों से संपर्क।

महाभारत काल में अखंड भारत के मुख्यत: 16 महाजनपदों (कुरु, पंचाल, शूरसेन, वत्स, कोशल, मल्ल, काशी, अंग, मगध, वृज्जि, चे‍दि, मत्स्य, अश्मक, अवंति, गांधार और कंबोज) के अंतर्गत 200 से अधिक जनपद थे।

महाभारत काल में म्लेच्छ और यवन को विदेशी माना जाता था। भारत में भी इनके कुछ क्षेत्र हो चले थे। हालांकि इन विदेशियों में भारत से बाहर जाकर बसे लोग ही अधिक थे। देखा जाए तो भारतीयों ने ही अरब और योरप के अधिकतर क्षेत्रों पर शासन करके अपने कुल, संस्कृति और धर्म को बढ़ाया था। उस काल में भारत दुनिया का सबसे आधुनिक देश था और सभी लोग यहां आकर बसने और व्यापार आदि करने के प्रति उत्सुक रहते थे। भारतीय लोगों ने भी दुनिया के कई हिस्सों में पहुंचकर वहां शासन की एक नए देश को गढ़ा है, इंडोनेशिया, सिंगापुर, मलेशिया, कंबोडिया, वियतनाम, थाईलैंड इसके बचे हुए उदाहरण है। भारत के ऐसे कई उपनिवेश थे जहां पर भारतीय धर्म और संस्कृति का प्रचलन था।

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ऋषि गर्ग को यवनाचार्य कहते थे। यह भी कहा जाता है कि अर्जुन की आदिवासी पत्नी उलूपी स्वयं अमेरिका की थी। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी कंदहार और पांडु की पत्नी माद्री ईरान के राजा सेल्यूकस (शल्य) की बहिन थी। ऐसे उल्लेख मिलता है कि एक बार मुनि वेद व्यास और उनके पुत्र शुकदेव आदि जो अमेरिका मेँ थे। शुक ने पिता से कोई प्रश्न पूछा। व्यास जी इस बारे मेँ चूंकि पहले बता चुके थे, अत उन्होंने उत्तर न देते हुए शुक को आदेश दिया कि शुक तुम मिथिला (नेपाल) जाओ और यही प्रश्न राजा जनक से पूछना।

तब शुक अमेरिका से नेपाल जाना पड़ा था। कहते हैं कि वे उस काल के हवाई जहाज से जिस मार्ग से निकले उसका विवरण एक सुन्दर श्लोक में है:- "मेरोहर्रेश्च द्वे वर्षे हेमवँते तत:। क्रमेणेव समागम्य भारतं वर्ष मासदत्।। सदृष्टवा विविधान देशान चीन हूण निषेवितान।

अर्थात शुकदेव अमेरिका से यूरोप (हरिवर्ष, हूण, होकर चीन और फिर मिथिला पहुंचे। पुराणों हरि बंदर को कहा है। वर्ष माने देश। बंदर लाल मुंह वाले होते हैं। यूरोपवासी के मुंह लाल होते हैं। अत:हरिवर्ष को यूरोप कहा है। हूणदेश हंगरी है यह शुकदेव के हवाई जहाज का मार्ग था।...अमेरिकन महाद्वीप के बोलीविया (वर्तमान में पेरू और चिली) में हिन्दुओं ने प्राचीनकाल में अपनी बस्तियां बनाईं और कृषि का भी विकास किया। यहां के प्राचीन मंदिरों के द्वार पर विरोचन, सूर्य द्वार, चन्द्र द्वार, नाग आदि सब कुछ हिन्दू धर्म समान हैं। जम्बू द्वीप के वर्ण में अमेरिका का उल्लेख भी मिलता है। पारसी, यजीदी, पैगन, सबाईन, मुशरिक, कुरैश आदि प्रचीन जाति को हिन्दू धर्म की प्राचीन शाखा माना जाता है।

ऋग्वेद में सात पहियों वाले हवाई जहाज का भी वर्णन है।- "सोमा पूषण रजसो विमानं सप्तचक्रम् रथम् विश्वार्भन्वम्।''... इसके अलावा ऋग्वेद संहिता में पनडुब्बी का उल्लेख भी मिलता है, "यास्ते पूषन्नावो अन्त:समुद्रे हिरण्मयी रन्तिरिक्षे चरन्ति। ताभिर्यासि दूतां सूर्यस्यकामेन कृतश्रव इच्छभान:"।
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श्रीकृष्ण और अर्जुन अग्नि यान (अश्वतरी) से समुद्र द्वारा उद्धालक ऋषि को आर्यावर्त लाने के लिए पाताल गए। भीम, नकुल और सहदेव भी विदेश गए थे। अवसर था युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ का। यह महान ऋषियोँ और राजाओँ को निमंत्रण देने गए। यह लोग चारों दिशाओं में गए। कृष्ण-अर्जुन का अग्नियान अति आधुनिक मोटर वोट थी। कहते हैं कि कृष्ण और बलराम एक बोट के सहारे ही नदी मार्ग से बहुत कम समय में मथुरा से द्वारिका में पहुंच जाते थे।

महाभारत में अर्जुन के उत्तर-कुरु तक जाने का उल्लेख है। कुरु वंश के लोगों की एक शाखा उत्तरी ध्रुव के एक क्षेत्र में रहती थी। उन्हें उत्तर कुरु इसलिए कहते हैं, क्योंकि वे हिमालय के उत्तर में रहते थे। महाभारत में उत्तर-कुरु की भौगोलिक स्थिति का जो उल्लेख मिलता है वह रूस और उत्तरी ध्रुव से मिलता-जुलता है। हिमालय के उत्तर में रशिया, तिब्बत, मंगोल, चीन, किर्गिस्तान, कजाकिस्तान आदि आते हैं। अर्जुन के बाद बाद सम्राट ललितादित्य मुक्तापिद और उनके पोते जयदीप के उत्तर कुरु को जीतने का उल्लेख मिलता है।

अर्जुन के अपने उत्तर के अभियान में राजा भगदत्त से हुए युद्ध के संदर्भ में कहा गया है कि चीनियों ने राजा भगदत्त की सहायता की थी। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ सम्पन्न के दौरान चीनी लोग भी उन्हें भेंट देने आए थे।

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महाभारत में यवनों का अनेका बार उल्लेख हुआ है। संकेत मिलता है कि यवन भारत की पश्चिमी सीमा के अलाव मथुरा के आसपास रहते थे। यवनों ने पुष्यमित्र शुंग के शासन काल में भयंकर आक्रमण किया था। कौरव पांडवों के युद्ध के समय यवनों का उल्लेख कृपाचार्य के सहायकों के रूप में किया गया है। महाभारत काल में यवन, म्लेच्छ और अन्य अनेकानेक अवर वर्ण भी क्षत्रियों के समकक्ष आदर पाते थे। महाभारत काल में विदेशी भाषा के प्रयोग के संकेत भी विद्यमान हैं। कहते हैं कि विदुर लाक्षागृह में होने वाली घटना का संकेत विदेशी भाषा में देते हैं।

जरासंध का मित्र कालयवन खुद यवन देश का था। कालयवन ऋषि शेशिरायण और अप्सारा रम्भा का पुत्र था। गर्ग गोत्र के ऋषि शेशिरायण त्रिगत राज्य के कुलगुरु थे। काल जंग नामक एक क्रूर राजा मलीच देश पर राज करता था। उसे कोई संतान न थी जिसके कारण वह परेशान रहता था। उसका मंत्री उसे आनंदगिरि पर्वत के बाबा के पास ले गया। बाबा ने उसे बताया की वह ऋषि शेशिरायण से उनका पुत्र मांग ले। ऋषि शेशिरायण ने बाबा के अनुग्रह पर पुत्र को काल जंग को दे दिया। इस प्रकार कालयवन यवन देश का राजा बना।

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महाभारत में उल्लेख मिलता है कि नकुल में पश्चिम दिशा में जाकर हूणों को परास्त किया था। युद्धिष्ठिर द्वारा राजसूय यज्ञ सम्पन्न करने के बाद हूण उन्हें भेंट देने आए थे। उल्लेखनीय है कि हूणों ने सर्वप्रथम स्कन्दगुप्त के शासन काल (455 से 467 ईस्वी) में भारत के भितरी भाग पर आक्रमण करके शासन किया था। हूण भारत की पश्‍चिमी सीमा पर स्थित थे। इसी प्रकार महाभारत में सहदेव द्वारा दक्षिण भारत में सैन्य अभियान किए जाने के संदर्भ में उल्लेख मिलता है कि सहदेव के दूतों ने वहां स्थित यवनों के नगर को वश में कर लिया था।

प्राचीनकाल में भारत और रोम के मध्य घनिष्ठ व्यापारिक संबंध था। आरिकामेडु ने सन् 1945 में व्हीलर द्वारा कराए गए उत्खनन के फलस्वरूप रोमन बस्ती का अस्तित्व प्रकाश में आया है। महाभारत में दक्षिण भारत की यवन बस्ती से तात्पर्य आरिकामेडु से प्राप्त रोमन बस्ती ही रही होगी। हालांकि महाभारत में एक अन्य स्थान पर रोमनों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इस उल्लेख के अनुसार रोमनों द्वारा युद्धिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समापन में दौरान भेंट देने की बात कही गई है।

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महाभारत में शकों का उल्लेख भी मिलता है। शक और शाक्य में फर्क है। शाक्य जाति तो नेपाल और भारत में प्रचीनकाल से निवास करने वाली एक जाति है। नकुल में पश्‍चिम दिशा में जाकर शकों को पराजित किया था। शकों ने भी राजसूय यज्ञ समापन पर युधिष्ठिर को भेंट दिया था। महाभारत के शांतिपर्व में शकों का उल्लेख विदेशी जातियों के साथ किया गया है। नकुल ने ही अपने पश्‍चिमी अभियान में शक के अलावा पहृव को भी पराजित किया था। पहृव मूलत: पार्थिया के निवासी थे।

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प्राचीन भारत में सिंधु नदी का बंदरगाह अरब और भारतीय संस्कृति का मिलन केंद्र था। यहां से जहाज द्वारा बहुत कम समय में इजिप्ट या सऊदी अरब पहुंचा जा सकता था। यदि सड़क मार्ग से जाना हो तो बलूचिस्तान से ईरान, ईरान से इराक, इराक से जॉर्डन और जॉर्डन से इसराइल होते हुई इजिप्ट पहुंचा जा सकता था। हालांकि इजिप्ट पहुंचने के लिए ईरान से सऊदी अरब और फिर इजिप्ट जाया जा सकता है, लेकिन इसमें समुद्र के दो छोटे-छोटे हिस्सों को पार करना होता है।

यहां का शहर इजिप्ट प्राचीन सभ्यताओं और अफ्रीका, अरब, रोमन आदि लोगों का मिलन स्थल है। यह प्राचीन विश्‍व का प्रमुख व्यापारिक और धार्मिक केंद्र था। मिस्र के भारत से गहरे संबंध रहे हैं। मान्यता है कि यादवों के गजपत, भूपद, अधिपद नाम के 3 भाई मिस्र में ही रहते थे। गजपद के अपने भाइयों से झगड़े के चलते उसने मिस्र छोड़कर अफगानिस्तान के पास एक गजपद नगर बसाया था। गजपद बहुत शक्तिशाली था।

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ऋग्वेद के अनुसार वरुण देव सागर के सभी मार्गों के ज्ञाता हैं। ऋग्वेद में नौका द्वारा समुद्र पार करने के कई उल्लेख मिलते हैं। एक सौ नाविकों द्वारा बड़े जहाज को खेने का उल्लेख भी मिलता है। ऋग्वेद में सागर मार्ग से व्यापार के साथ-साथ भारत के दोनों महासागरों (पूर्वी तथा पश्चिमी) का उल्लेख है जिन्हें आज बंगाल की खाड़ी तथा अरब सागर कहा जाता है। अथर्ववेद में ऐसी नौकाओं का उल्लेख है जो सुरक्षित, विस्तारित तथा आरामदायक भी थीं।

ऋग्वेद में सरस्वती नदी को ‘हिरण्यवर्तनी’ (सु्वर्ण मार्ग) तथा सिन्धु नदी को ‘हिरण्यमयी’ (स्वर्णमयी) कहा गया है। सरस्वती क्षेत्र से सुवर्ण धातु निकाला जाता था और उस का निर्यात होता था। इसके अतिरिक्त अन्य वस्तुओं का निर्यात भी होता था। भारत के लोग समुद्र के मार्ग से मिस्र के साथ इराक के माध्यम से व्यापार करते थे। तीसरी शताब्दी में भारतीय मलय देशों (मलाया) तथा हिन्द चीनी देशों को घोड़ों का निर्यात भी समुद्री मार्ग से करते थे।

भारतवासी जहाजों पर चढ़कर जलयुद्ध करते थे, यह ज्ञात वैदिक साहित्य में तुग्र ऋषि के उपाख्यान से, रामायण में कैवर्तों की कथा से तथा लोकसाहित्य में रघु की दिग्विजय से स्पष्ट हो जाती है।भारत में सिंधु, गंगा, सरस्वती और ब्रह्मपुत्र ऐसी नदियां हैं जिस पर पौराणिक काल में नौका, जहाज आदि के चलने का उल्लेख मिलता है।

कुछ विद्वानों का मत है कि भारत और शत्तेल अरब की खाड़ी तथा फरात (Euphrates) नदी पर बसे प्राचीन खल्द (Chaldea) देश के बीच ईसा से 3,000 वर्ष पूर्व जहाजों से आवागमन होता था। भारत के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में जहाज और समुद्रयात्रा के अनेक उल्लेख है (ऋक् 1. 25. 7, 1. 48. 3, 1. 56. 2, 7. 88. 3-4 इत्यादि)। याज्ञवल्क्य सहिता, मार्कंडेय तथा अन्य पुराणों में भी अनेक स्थलों पर जहाजों तथा समुद्रयात्रा संबंधित कथाएं और वार्ताएं हैं। मनुसंहिता में जहाज के यात्रियों से संबंधित नियमों का वर्णन है। ईसा से 3,000 वर्ष पूर्व का समय महाभारत का काल था।

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अमेरिका का उल्लेख पुराणों में पाताललोक, नागलोक आदि कहकर बताया गया है। इस अंबरिष भी कहते थे। जैसे मेक्सिको को मक्षिका कहा जाता था। कहते हैं कि मेक्सिको के लोग भारतीय वंश के हैं। वे भारतीयों जैसी रोटी थापते हैं, पान, चूना, तमाखू आदि चबाते हैं। नववधू को ससुराल भेजने समय उनकी प्रथाएं, दंतकथाएं, उपदेश आदि भारतीयों जैसे ही होते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के एक ओर मेक्सिको है तो दूसरी ओर कनाडा। अब इस कनाडा नाम के बारे में कहा जाता है कि यह भारतीय ऋषि कणाद के नाम पर रखा गया था। यह बात डेरोथी चपलीन नाम के एक लेखक ने अपने ग्रंथ में उद्धत की थी। कनाडा के उत्तर में अलास्का नाम का एक क्षेत्र है। पुराणों अनुसार कुबेर की नगरी अलकापुरी हिमालय के उत्तर में थी। यह अलास्का अलका से ही प्रेरित जान पड़ता है।

अमेरिका में शिव, गणेश, नरसिंह आदि देवताओं की मूर्तियां तथा शिलालेख आदि का पाया जाने इस बात का सबसे बड़ा सबूत है कि प्रचीनकाल में अमेरिका में भारतीय लोगों का निवास था। इसके बारे में विस्तार से वर्णन आपको भिक्षु चमनलाल द्वारा लिखित पुस्तक 'हिन्दू अमेरिका' में चित्रों सहित मिलेगा। दक्षिण अमेरिका में उरुग्वे करने एक क्षेत्र विशेष है जो विष्णु के एक नाम उरुगाव से प्रेरित है और इसी तरह ग्वाटेमाल को गौतमालय का अपभ्रंष माना जाता है। ब्यूनस आयरिश वास्तव में भुवनेश्वर से प्रेरित है। अर्जेंटीना को अर्जुनस्थान का अपभ्रंष माना जाता है।

पांडवों का स्थापति मय दानव था। विश्‍वकर्मा के साथ मिलकर इसने द्वारिका के निर्माण में सहयोग दिया था। इसी ने इंद्रप्रस्थ का निर्माण किया था। कहते हैं कि अमेरिका के प्रचीन खंडहर उसी के द्वारा निर्मित हैं। यही माया सभ्यता का जनक माना जाता है। इस सभ्यता का प्राचीन ग्रंथ है
 पोपोल वूह (popol vuh)। पोपोल वूह में सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व की जो स्थिति वर्णित है कुछ कुछ ऐसी ही वेदों भी उल्लेखित है। उसी पोपोल वूह ग्रन्थ में अरण्यवासी यानि असुरों से देवों के संघर्ष का वर्णन उसी प्रकार से मिलता है जैसे कि वेदों में मिलता है।
Mahesh Sinhaji की वॉल से

हम जिसे अपना आराध्य या गुरु मानते आए हैं। उस गुरु के संदर्भ में कुछ अनुचित बातें सामने आती है तो मन को बड़ा दुख होता है ऐसी परिस्थिति में क्या करना चाहिए..??*

*बांगरू-बाण*

*जिज्ञासा-समाधान।*

*मेरे एक सहपाठी मित्र है मकरंद जी उन्होंने एक प्रश्न पूछा है कि "हम जिसे अपना आराध्य या गुरु मानते आए हैं। उस गुरु के संदर्भ में कुछ अनुचित बातें सामने आती है तो मन को बड़ा दुख होता है ऐसी परिस्थिति में क्या करना चाहिए..??* 

श्रीपादावधूत की कलम से 

*मकरंद भाई परेशान होने की कोई बात ही नहीं है।*

*इसके दो पक्ष हैं।*

पहला पक्ष 
*जो है जैसा है इतने वर्षों का विश्वास है तो उस पर किंतु परंतु नहीं करना चाहिए। उस पर पूर्ण विश्वास व श्रद्धा भाव रखना चाहिए।* 
*वैसे भी हमारे आराध्य या उपास्य लौकिक मनुष्य होना ही नहीं चाहिए हमारे आराध्य या उपास्य वैदिक देव धर्म परंपरा से चली आ रही सनातन संस्कृति के लक्ष्मी-नारायण, गिरिजा-शंकर, सीता-राम, राधा-कृष्ण, दत्त, हनुमान, गणपति, दुर्गा आदि होने चाहिए।* 
*संत या कोई महापुरुष केवल मार्गदर्शक के रूप में ही स्वीकार होना चाहिए।* 
*कबीर दास जी के अनुसार।*
*जाति न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान* 
*मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान* 
*जब हम स्कूल में पढ़ने के लिए जाते हैं तो विषय को पढ़ाने वाला शिक्षक किस जाति का है..? स्कूल के बाहर उसका आचरण व्यवहार कैसा है.?? उसका चरित्र कैसा है..? यह हमारे चिंतन का एवं अध्ययन का विषय नहीं होना चाहिए।* 
*आपका और मेरा शिक्षण देवास में ही हुआ है इसलिए उदाहरण भी देवास का ही दे रहा हूं। हम केमेस्ट्री पढ़ने के लिए देवास के एक विख्यात एवं सुप्रसिद्ध सर के यहां जाते थे जो शराब पीने के आदी थे। समाज में उनकी पहचान एक शराबी की ही थी।*
*गणित के ही एक सर जिन्होंने अपने यहां पढ़ने आने वाली एक छात्रा से ही लव मैरिज किया था। अर्थात उनका चारित्रिक पक्ष उपरोक्त कोटि के आधार पर स्वीकार्य नहीं किया जा सकता था। फिर भी पूरे देवास में इन दोनों शिक्षकों के प्रति अपार स्नेह श्रद्धा एवं आदर का भाव था। जो यही सिद्ध करता है कि हमें उनसे केवल ज्ञान की आवश्यकता थी और वह हमारी जिज्ञासाओं की पूर्ति अपने विषय के लौकिक ज्ञान से करते थे। उनका व्यावहारिक जीवन उनका चारित्रिक पक्ष कैसा भी रहा हो हमने उस पर कभी ध्यान नहीं दिया।*
*मेरा मानना है कि आध्यात्मिक जीवन में संत की भी वही भूमिका होनी है।* 

*दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष है परंपराएं*
*जब हम परंपरा का अनुशीलन नहीं करते हैं तो इस तरह की विडंबनाओं का सामना करना पड़ता है।*
*हमारे यहां जीवन के प्रत्येक व्यवहार में परंपराओं का अनुशीलन अनिवार्य माना गया है।*
*हम अपने बच्चों को स्कूल में डालते समय उस स्कूल का ट्रैक रिकॉर्ड देखते है। पढ़ाने वाले कौन लोग हैं.?? किस तरह का परिवेश है..?? अच्छे संस्कार देते हैं या नहीं। शैक्षणिक गतिविधियों के अतिरिक्त अन्य कितने प्रकार की गतिविधियां करते हैं इत्यादि..!! दूसरे शब्दों में कहूं तो परंपराएं ही देखते हैं।*
*विवाह जैसी संस्था में भी सजातीय बंधुओं से विवाह के समय उनके कुल को, परिवार को देखने की परंपरा है। उनके संबंध कहां-कहां है..?? उन लोगों का समाज में किस तरह का स्थान व सम्मान है..!! यह सब देखने के बाद ही विवाह संबंध तय होते हैं। और यही बात अध्यात्म व धर्म में भी स्वीकार करनी चाहिए है।* 
*भारत को सनातन वैदिक संस्कृति से जोड़ने का श्रेष्ठ कार्य करने वाले आदि शंकराचार्य की परंपरा का पूरे भारत में प्रभाव है। इसीलिए आज भी लोग शंकराचार्य जी को पूज्य एवं वंदनीय मानते हैं और वर्तमान में उनके जो उत्तराधिकारी हैं उनको भी वही आदर और सम्मान देते है।* 
*महाराष्ट्र में वारकरी संप्रदाय व दत्त संप्रदाय जो परंपरा से चली आ रही उपासना पद्धति को अक्षुण्ण रखने की परंपरा का निर्वहन कर रहा है। हजारों वर्षों से चले आ रहे धर्म के समस्त क्रियाकलाप आज भी उसी तरह से निर्बाध गति से जारी रखें हुए है।* 
*आषाढी एकादशी के निमित्त लाखों लोगों का जन समुदाय जिसे "जन-समुद्र" कहना ज्यादा समीचीन होगा जो बिना किसी निमंत्रण के, बुलावे के, प्रलोभन के यात्रा में सम्मिलित होता हैं।* 
*यही हमारे श्रेष्ठ सनातन हिंदू धर्म की सबसे बड़ी विशेषता है, व्यवस्था है।* 
*हमारे मध्य प्रदेश में भी अभी हजारों लोग "रामदेवरा" जो राजस्थान का प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। इसकी यात्रा के लिए पैदल निकल रहे हैं। गांव/गांव से सैकड़ों/हजारों लोगों का जत्था प्रतिवर्ष रामदेवरा के लिए इसी श्रावण महीने में निकलता है।* 
*तो यह वही परंपराएं हैं जो आज भी अक्षुण्ण बनी हुई है और ऐसी ही परंपराओं का अनुशीलन एवं अनुकरण करना ही हमारा परम कर्तव्य होना चाहिए। परंपराए हमें इस तरह की विषमताओं एवं विडंबनाओं से बचाती है।* 
*दुर्भाग्य से कहे या अज्ञानता वश पिछले कुछ वर्षों में हम व्यक्तिवादी या व्यक्ति केंद्रित विचारधारा का अनुसरण करने लगे हैं और उसी का ही यह परिणाम सामने आ रहा है।* 
*हम मनुष्य को ईश्वर के समकक्ष रखकर उनको ही अपना आराध्य एवं उपास्य देवता मानने लगे हैं। अपने गुरु की मूर्ति स्थापित करना उनके मंदिर बनाना उनके नाम के लॉकेट और अन्य धार्मिक वस्तुएं बनाकर पहनना उनके जीवन चरित्र को धार्मिक ग्रंथ के रूप में निर्मित कर उनका वाचन करना यह वह सारी बातें हैं। जो आज समाज का एक वर्ग करने लगा है। इसका दुष्परिणाम यह होगा कि आने वाले कुछ वर्षों के बाद हमारे जो मूल देवता हैं जैसे राम कृष्ण शिव हनुमान उनके मंदिर उनकी उपासना पद्धति धीरे-धीरे विलुप्त हो जाएगी जो कि एक चिंता का विषय है।* 
*जब मानवोचित स्वभाव दुर्गुण मनोविकार या वासना के कारण इन संतों और गुरुजन के नैतिक आध्यात्मिक पतन की बातें जब उनके भक्त समुदाय के सामने आएंगी। तब आज जो स्थिति रामपाल, राम-रहीम, आसाराम बापू, सांई के भक्तों की है। वैसे ही उन्हें भी विचलित एवं दिग्भ्रमित करेगी।* 
 *राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में गुरु के रूप में भगवाध्वज को ही अपना गुरु या आराध्य माना है। सिख धर्म में भी गुरु ग्रंथ साहिब को ही गुरु के रूप में स्थान दिया है। जो इस तरह से उत्पन्न होने वाली स्थिति से निपटने के लिए कारगर सिद्ध हो रहा है।*
*समाज में प्रत्येक समय हर तरह के विमर्श प्रेषित एवं प्रसारित किए जाते हैं। फिर वह सच है या झूठ है कल्पनाओं पर आधारित है या जानबूझकर फैलाएं जा रहे हैं इस पर ध्यान नहीं दिया जाता है।*
*इन बाबाओं को भी इन्हीं लोगों के माध्यम से प्रश्रय एवं प्रसिद्धि मिली। जो मीडिया में व्याप्ति के कारण कुछ बातें समाज में वायरल हो जाती हैं और कुछ बातें बच जाती हैं।*
*अभी इसी अधिक मास या श्रावण मास के निमित्त उज्जैन में 84 महादेव, सप्त सरोवर की यात्रा करने के लिए भीड़ उमड़ रही है। लेकिन इस अधिक मास में इन यात्राओं के प्रति जो आकर्षण देखने को मिल रहा है उसके पीछे का कारण क्या है यह वही विमर्श है जो पंडित प्रदीप मिश्रा ने अपनी कथाओं के माध्यम से लोगों में प्रसारित कर दिया है।* 
*आज इन यात्राओं को हम अच्छा या श्रेष्ठ इसलिए मान रहे हैं क्योंकि यह हिंदू धर्म के उन्नयन का कार्य कर रही है।* 
*84 महादेव क्या पिछले कुछ वर्षों से ही स्थापित है। ऐसा भी नहीं है वह तो हजारों वर्षों से उज्जैन में स्थापित हैं। ऐसा माना जाता है कि जितना प्राचीन भगवान महाकालेश्वर का मंदिर है उतने ही पुराने यह 84 महादेव मंदिर हैं। इनमें से अधिकांश मंदिरों की रोज ठीक से पूजा पाठ भी नहीं होती थी। लेकिन परिस्थितियां बदली है और आज हजारों लोग रोज इनके दर्शन कर रहे हैं। जोकि सनातन हिंदू संस्कृति के लिए एक अच्छी बात है।* 
*कम्युनिस्ट और मुस्लिम परस्त व ईसाई मिशनरी समर्थक तथाकथित धर्मनिरपेक्ष समाज जिसे आज हम लिब्रांडू या टुकड़े-टुकड़े गैंग कहते हैं इस विचारधारा के लोगों द्वारा जानबूझकर समाज में कुछ गलत बातें भी प्रचारित एवं प्रसारित की जाती है। जिससे हमारी महान परंपराओं संस्कृति धर्म और अध्यात्म को झूठा गलत एवं निरर्थक बताने का कार्य किया जाता है जो एक प्रोपेगेंडा का एक हिस्सा है।* 
*मनोविज्ञान कहता है कि जो बातें हमारी सोच या विचारधारा को सूट करती है। उसे हम स्वीकार कर लेते हैं और जो हमारी विचारधारा को सूट नहीं करती। उसका हम विरोध करते हैं। फिर चाहे वो राजनीति हो या धर्म हो या अध्यात्म।* 
*"इसलिए किसी भी बात को लेकर ना तो विचलित होने की आवश्यकता है ना परेशान होने की आवश्यकता है।* 
*समाज में जो हो रहा है उसे कर्ता भाव से देखने का प्रयत्न या प्रयास करना चाहिए और हमारे यहां परंपरा से चली आ रही बातों को ही हमारे दैनंदिन जीवन में अपनाना चाहिए।*

*नोट:--आपने जो जिज्ञासा या प्रश्न किया था उसका उत्तर मैंने मेरी सोच समझ या मेरे पास उपलब्ध अनुभव और ज्ञान से देने का प्रयत्न किया है। मैं यह दावा नहीं करता कि मैंने जो बातें लिखी हैं वह सब आपको स्वीकार्य हो या वह सब आपके अनुकूल सत्य हो क्योंकि सत्य सार्वत्रिक है लेकिन वह प्रत्येक व्यक्ति के समझ देश काल परिस्थिति के अनुसार अलग-अलग हो सकता है।*

अवधूत चिंतन श्री गुरुदेव दत्त

Saturday, January 13, 2024

*बांगरू-बाण*

श्रीपादावधूत स्वामी की कलम से 

*जय भारत* 
*जय पानीपत* 

*मकर संक्रांति* 
*आज से लगभग 263 वर्ष पूर्व हरियाणा के पानीपत पर सवा लाख से ज्यादा  सैनिक भूखे थे। पिछले 1 महीने से उन्हें पेट भर खाना नहीं मिल रहा था। साथ ही उत्तर भारत की हड्डियों को कंपकंपान कर गलानेवाली ठंड का सामना करने वाले गर्म कपड़े भी नहीं थे क्योंकि ये सैनिक जिस प्रदेश से आए थे वहां पर इतनी ठंड नहीं पड़ती थी। ऐसी विषम परिस्थिति में भी मकर संक्रांति के दिन एक भयानक और भीषण लड़ाई की शुरुआत हुई और इन सैनिकों ने प्राणप्रण से शत्रु को पराजित करने के लिए युद्ध करना आरंभ कर दिया।* 

*कौन थे यह लोग....??*

*यह मराठे थे...!!!*

*मराठे....!!!* 
*जी हां मराठे....!!!* 
यह वही मराठे थे जिन्होंने *छत्रपति शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज्य की स्थापना में अपना तन मन और धन अपना सर्वस्व समर्पित किया था। अपनी हिंदू अस्मिता और मां भारती और मां भवानी की अर्चना में प्राण प्रण से योगदान दिया था।* कहने को तो अनेक जाति के मराठे थे इसमें *पाटिल, देशमुख, चितपावन ब्राह्मण, धनगर, देशस्थ कराडे ब्राह्मण, कुनबी, कोली, लोहार, सिकलीगर, भिश्ती, चर्मकार, महार, माली, बंजारी और अनेक जातियां थी। कुछ मुसलमान भी थे इन सब को मराठे कहते थे।* 

*मारेगा अपितु हटेगा नहीं डटकर खड़ा रहेगा जूझेगा और मारेगा वह मराठा।* 

*मराठा यह शब्द उस समय की परिस्थिति में सकल हिंदू समाज का प्रतिनिधित्व करता था इसलिए इस मराठा शब्द को वर्तमान समय के जातिवाचक संज्ञा से मत तुलना कीजिए। उस समय मां भारती की रक्षा के लिए लड़ने वाला प्रत्येक मावला हिंदू ही था। उस मकर संक्रांति के दिन संपूर्ण महाराष्ट्र एकजुट होकर मराठा बन कर लड़ा था।*
 *उनके साथ तेलंगना कर्नाटक और मध्य प्रांत के भी अनेक वीर योद्धा लड़े थे। बुराड़ी के घाट पर दत्ता जी सिंधिया का जो बलिदान हुआ था। यह घटना पुणे के नाना साहब पेशवा के मन में चुभ गई थी। पेशवा के नेतृत्व में लड़ने के लिए होलकर, शिंदे, गायकवाड, भोसले  सभी तैयार थे । इस युद्ध मैं लड़ने वाले सभी सैनिक विभिन्न जातियों के थे लेकिन वह सब हिन्दू ही थे, मराठा सैनिक थे इसमें कहीं कोई संदेह नहीं था।*
*हिंदवी स्वराज्य के लिए लड़ने वाले सभी सैनिकों के लिए यह युद्ध केवल उनके उदर निर्वाह के लिए किया जाने वाला प्रयत्न या प्रयास नहीं था। उनके लिए छत्रपति शिवाजी महाराज दास्यता मुक्त स्वतंत्रता की प्रेरणा को अक्षुण्ण रखने की अस्मिता का भाव था अपने एक साथी के बलिदान का प्रतिशोध लेने की उत्कट भावना थी इसीलिए सभी मराठा बांधव प्राण प्रण से लड़ें थे।* *सभी इस देश की रक्षा के लिए इस देश पर आपन्न विदेशी आक्रमण से लड़ने के लिए ही महाराष्ट्र से सुदूर उत्तर भारत के पानीपत पर आए थे। इस युद्ध को लड़ने का उद्देश्य साम्राज्यवादी विस्तार नहीं था इसमें कहीं कोई विरोधाभास नहीं है।* 

*14 जनवरी 1761  को युद्ध लड़ते हुए जितने भी बलिदान हुए वे सब मराठा थे जो कैदी पकड़ लिए गए उन्हें बंदी बनाकर अफगानिस्तान ले जाया गया वह आज भी मराठा बुगती या मराठा मारी के नाम से जाने जाते हैं ।* *उनकी जातियां आज विलीन हो गई है। जातियां तो क्या उनका धर्म भी विलीन हो गया है लेकिन आज भी मराठा यह पहचान कायम है।*

*पानीपत के इस युद्ध को पानीपत का तीसरा युद्ध कहा जाता है* और इस लड़ाई को इतिहास में यह कह कर के संबोधित किया जाता है कि यह युद्ध मराठे बुरी तरह से हार गए थे। परंतु वस्तु स्थिति ऐसी नहीं है। *मराठा युद्ध हारे जरूर थे लेकिन उनकी हार हार नहीं थी क्योंकि अब्दाली ने कहने को युद्ध जीता था लेकिन उसका इतना नुकसान हो गया था कि वह कभी भारत पर अपना शासन कायम न कर सका।* 
*नाना साहब पेशवा को लिखे गए पत्र में अब्दाली अपने अफगान पुराणों के नायक रुस्तम और इस्पिंदियार (अपने कृष्ण और अर्जुन जैसे) के रूप में मराठी हुतात्मा वीरों को नवाजता है। युद्ध के 3 महीने बाद ही वह मराठों से संधि कर हमेशा के लिए अफगानिस्तान वापस लौट गया। इस युद्ध के पश्चात वायव्य सरहद सीमा क्षेत्र से कोई भी विदेशी आक्रांता हिंदुस्तान की सीमा में प्रवेश नहीं कर पाया और ईसा पूर्व 327 में अलेक्जेंडर द्वारा खोले गए हिंदुस्तान के प्रवेश द्वार खैबर और गोलन दर्रे को पुरुषार्थी मराठों ने अपने लहू से अपने बलिदान से बंद कर दिया। इस युद्ध के पश्चात कोई भी विदेशी आक्रांता भारत की तरफ देखने की भी हिम्मत नहीं उठा सका आक्रमण करना तो दूर की बात रही।* 
*पानीपत के सिर्फ 10 वर्षों के बाद ही महादजी सिंधिया ने नजीब खान की जो कबर थी उसे खोद कर नष्ट भ्रष्ट कर दिया। और दिल्ली पर फिर से मराठों का आधिपत्य हो गया था।  पानीपत के इस युद्ध के 30/35 वर्षों के बाद भी मराठे मराठे बनकर ही लड़े और विजयी भी हुए।* 

*युद्ध तभी होता है जब दो अलग-अलग साम्राज्यों विचारधाराओं में अपने-अपने हितों के लिए टकराव होता है और यही टकराव एक बड़े युद्ध का कारण बनता है। उस समय भारत की परिस्थिति को देखते हुए यही एक विचार मराठों का था जो छत्रपति शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज्य के दिशानिर्देशों के अनुरूप था। देश व धर्म पर आक्रमण करने वाले सारे आतंकवादी होते हैं और इनका प्रतिकार होना ही चाहिए इसी बात को लेकर मराठे पानीपत का युद्ध लड़ने गए थे।* 

*परंतु दुर्भाग्य से आज हम सब लोग अपनी पहचान को भूल रहे हैं और केवल जाति संप्रदायों में विभक्त होकर रह गए हैं। आज हमारे सामने राष्ट्र बोध राष्ट्रवाद यह पहचान नहीं है । हम केवल और केवल जाति को ही आधार मानकर धर्म को ही आधार मानकर स्वयं को ब्राह्मण मराठा दलित ओबीसी और फलाना ढिकाना के नाम से अपनी अस्मिता को ढूंढने का प्रयत्न कर रहे हैं।*

*इस मकर संक्रांति के अवसर पर जब हम सारे हिंदू बांधव एक दूसरे को तिल और गुड़ देकर शुभकामनाएं देंगे तब सैकड़ों वर्ष पूर्व हड्डियों को कंपकंपाने वाली ठंड में भूखे प्यासे रहकर देश की अखंडता और अस्मिता की रक्षा के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करने वाले अपने रक्त से इस भारत भू का अभिसिंचन करने वाले उन लाखों लाख मराठा सैनिकों के बलिदान को याद अवश्य रखिएगा क्योंकि उस दिन बलिदान देने वाला हर सैनिक वहां मराठा के रूप में  ही गया था और मराठा के रूप में ही उसने अपना बलिदान दिया था।*

*नोट:-- पूरे आलेख में मराठा शब्द बार-बार प्रयुक्त हुआ है मराठा शब्द उस समय की परिस्थिति में संपूर्ण हिंदू समाज का प्रतिनिधित्व करता था इसलिए इस मराठा गुणवाचक शब्द को वर्तमान समय के जातिवाचक संज्ञा से तुलना मत कीजिए। उस समय विदेशी आतंकवादियों के विरुद्ध लड़ने वाला प्रत्येक मावळा हिंदू था।*

Saturday, July 8, 2023

बांगरू बाण 
श्रीपादावधूत की कलम से 

*शाब्दिक सुबह*
          *अर्थपूर्ण दिवस*

*यूनेस्को के अनुसार भाषा मात्र संपर्क, शिक्षा या विकास का माध्यम न होकर व्यक्ति की विशिष्ट पहचान और उसकी संस्कृति, परंपरा एवं इतिहास का भंडार है। इसके साथ ही सांस्कृतिक मूल्यों की विरासत को संजोने का कार्य भी मातृभाषा ही करती है। मातृभाषा का महत्व धर्म जाति पंथ संप्रदाय आदि से भी अधिक है। जब कहीं कोई भाषा विलुप्त होती है तो उसके साथ एक संस्कृति और परंपरा भी विलुप्त हो जाती है।*

भारत अपनी भाषाई विविधता के कारण अनेक देशों का एक देश प्रतीत होता हैं। लगभग एक सहस्त्र वर्ष की अवधि के बाद पराधीनता के कारण भारत में समय-समय पर विविध भाषाओं का प्रसार होता रहा। 
*वस्तुतः " यदि किसी जाति, धर्म अथवा देश को पराधीन रखना है तो उसके साहित्य को नष्ट कर देना चाहिए, वह स्वयं नष्ट हो जायेगा।"* 

इस बात को ध्यान में रखते हुए *विदेशियों द्वारा हमारी सभ्यता, संस्कृति, साहित्य पर निरन्तर कुठाराघात होता रहा। साधारण आदमी कभी-कभी आत्म-बल की कमी के कारण, तो कभी उदर पालन की समस्याओं के कारण उनसे टक्कर लेने में असमर्थ रहा और उन्हीं के रंग में उसने अपने को रंग लिया।* 
*भारत की संस्कृति एवं विरासत को अगर किसी भाषा ने सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया है तो वह निश्चित रूप से अंग्रेजी है। फिर भी हर एक भाषा की अपनी एक पहचान अपनी एक विशेषता होती है जिसके शब्दों से विशिष्टता झलकती है तो आज हम इसे अंग्रेजी भाषा के कुछ शब्दों के माध्यम से अंग्रेजी भाषा को जानने का प्रयास करेंगे।*

अंग्रेजी भाषा में प्रेम की अभिव्यक्ति या परस्पर प्रेम अनुभूति के लिए इन तीन शब्दों का प्रयोग किया जाता है .......

1. *Boyfriend*
 2. *Girlfriend*
  3. *Family*

किन्तु एक बात ध्यान देने वाली है कि .....

*Boyfriend* और 
*Girlfriend*   
 इन दो शब्दों के अन्तिम तीन अल्फाबेट है *end*  
इसलिये ये सम्बन्ध एक ना एक दिन ख़त्म हो जाते हैं ।

 परन्तु .....

तीसरा शब्द है :
*FAMILY* = *FAM* + *ILY*      
जिसके पहले तीन अल्फाबेट से बनता है :

*FAM* = *Father* And *Mother*  

और अन्तिम तीन अल्फाबेट से :
*ILY* = *I Love You*

अत: जिस शब्द का आरम्भ पिता एंव माता से और अन्त प्यार के साथ हो, *वह शब्द सही अर्थों में परिवार है !!!* 

*यही परिवार भारतीय संस्कृति की मूल अवधारणा का प्रतीक रहा है अंग्रेजी भाषा में तो केवल शब्दों के माध्यम से इसे समझाने का प्रयास किया है लेकिन भारत ने इसे अपने दैनंदिन व्यवहार में उतारकर जीवन जीने का एक आदर्श दृष्टिकोण समाज में स्थापित किया है।*

अवधूत चिंतन श्री गुरुदेव दत्त